आज पर्यावरण दिवस के मौके पर आइए मिलते है उत्तराखंड की उन महान हस्तियों से जिन्होंने अपना पूरा जीवन पर्यावरण के प्रति समर्पित कर दिया है।
कुंवर दामोदर सिंह राठौड़
पिथौरागढ़ के डीडीहाट तहसील के पर्यावरणविद कुंवर दामोदर सिंह राठौर उन्होंने अपनी पूरी जिंदगी पौधों को लगाने में लगा दी। इनके द्वारा करीब 125 प्रजाति के आठ करोड़ पौधे लगाये गये थे। पर्यावरण संरक्षण को लेकर सराहनीय काम करने वाले कुंवर दामोदर सिंह राठौर को वर्ष 2000 में राष्ट्रपति डॉ एपीजे अब्दुल कलाम ने इंदिरा प्रियदर्शिनी वृक्ष मित्र पुरस्कार से नवाजा था
गौरा देवी
चिपको आन्दोलन की जननी, गौरा देवी जो चिपको वूमन के नाम से मशहूर हैं। 1925 में चमोली जिले के लाता गांव के एक मरछिया परिवार में श्री नारायण सिंह के घर में इनका जन्म हुआ था। गौरा देवी ने कक्षा पांच तक की शिक्षा भी ग्रहण की थी, जो बाद में उनके अदम्य साहस और उच्च विचारों का सम्बल बनी। आज पूरा विश्व गौरा देवी के संघर्ष की कहानी सुनाता। उन्होंने अपने गांव में पेड़ो को काटने से बचाने के लिए के लिए पेड़ से चिपक गई थी। और उन्होंने कहा था कि पेड़ो को काटने से पहले हमें काटना होगा।
सुंदरलाल बहुगुणा
चिपको आन्दोलन के प्रणेता सुन्दरलाल बहुगुणा का जन्म ९ जनवरी सन १९२७ को उत्तराखंड के सिलयारा नामक स्थान पर हुआ। प्राथमिक शिक्षा के बाद वे लाहौर चले गए और वहीं से बी.ए. किए।
सन १९४९ में मीराबेन व ठक्कर बाप्पा के सम्पर्क में आने के बाद ये दलित वर्ग के विद्यार्थियों के उत्थान के लिए प्रयासरत हो गए तथा उनके लिए टिहरी में ठक्कर बाप्पा होस्टल की स्थापना भी किए। दलितों को मंदिर प्रवेश का अधिकार दिलाने के लिए उन्होंने आन्दोलन छेड़ दिया।
अपनी पत्नी श्रीमती विमला नौटियाल के सहयोग से इन्होंने सिलयारा में ही ‘पर्वतीय नवजीवन मण्डल’ की स्थापना भी की। सन १९७१ में शराब की दुकानों को खोलने से रोकने के लिए सुन्दरलाल बहुगुणा ने सोलह दिन तक अनशन किया। चिपको आन्दोलन के कारण वे विश्वभर में वृक्षमित्र के नाम से प्रसिद्ध हो गए।
बहुगुणा के ‘चिपको आन्दोलन’ का घोषवाक्य है-
क्या हैं जंगल के उपकार, मिट्टी, पानी और बयार। मिट्टी, पानी और बयार, जिन्दा रहने के आधार।
सुंदरलाल बहुगुणा जी को पद्मश्री और पद्मविभूषण जैसे एवार्ड्स भी मिल चुके है।
चंडीप्रसाद भट्ट
(जन्म : सन् १९३४) भारत के गांधीवादी पर्यावरणवादी और समाजिक कार्यकर्ता हैं। उन्होने सन् १९६४ में गोपेश्वर में ‘दशोली ग्राम स्वराज्य संघ’ की स्थापना की जो कालान्तर में चिपको आंदोलन की मातृ-संस्था बनी। वे इस कार्य के लिये वे १९८२ में रेमन मैगसेसे पुरस्कार से सम्मानित हुए तथा वर्ष २००५ में उन्हें भारत सरकार द्वारा पद्मभूषण पुरस्कार दिया गया।
भारत सरकार द्वारा साल २०१३ में उन्हें गांधी शांति पुरस्कार से सम्मानित किया
जगत सिंह जंगली
रूद्रप्रयाग जिले के कोटमल्ला गांव निवासी 62 वर्षीय जगत सिंह को वन एवं पर्यावरण प्रेम ने ही उन्हें जंगली बना दिया। बुनियादी स्कूली शिक्षा पाए एवं सीमा सुरक्षा संगठन (बी.एस.एफ.) से सेवानिवृत जंगली ने यह भी साबित कर दिखाया है कि प्रकृति से बड़ा कोई शिक्षक नहीं होता। मिश्रित वनों के उनके प्रयोग इतने सफल हुए हैं कि आज देशभर के विश्वविद्यालय जंगली को पर्यावरण की शिक्षा देने बुलाते हैं।
कल्याण सिंह रावत
कल्याण सिंह रावत भारत के पर्यावरण-कार्यकर्ता एवं मैती आन्दोलन के संस्थापक हैं। वे पेशे से जीवविज्ञान के प्राध्यापक हैं।
इसके तहत गढ़वाल के किसी गांव में किसी लड़की की शादी होती है तो विदाई के समय दूल्हा-दुल्हन को एक फलदार पौधा दिया जाता है।
वैदिक मन्त्रों के द्वारा दूल्हा इस पौधे को रोपित करता है तथा दुल्हन इसे पानी से सींचती है। फिर ब्राह्मण द्वारा इस नव दम्पत्ति को आशीर्वाद दिया जाता है। पेड़ को लगाने के एवज में दुल्हे द्वारा दुल्हन की सहेलियों को अपनी इच्छानुसार कुछ पैसे दिये जाते हैं। जिसका उपयोग पर्यावरण सुधारक कार्यों में और समाज के निर्धन बच्चों के पठन-पाठन में किया जाता है। दुल्हन की सहेलियों को मैती बहन कहा जाता है। जो भविष्य में उस पेड़ की देखभाल करती है।
गढ़वाल में मैत का अर्थ होता है मायका और मैती का अर्थ होता है मायके वाले। इस आन्दोलन के जरिये पहाड़ की महिलाओं का अपने जल, जंगल और जमीन के प्रति असीम प्यार को चरितार्थ होता है। ‘मायका’ यानि जहां लड़की जन्म से लेकर शादी होने तक अपने माता-पिता के साथ रहती है। और जब उसकी शादी होती है तो वह ससुराल जाती है। लेकिन अपनी यादों के पीछे वह गांव में बिताए गए पलों के साथ ही शादी के मौके पर रोपित वृक्ष से जुड़ी यादों को भी साथ लेकर जाती है। इसी भावनात्मक आंदोलन के साथ शुरू हुआ पर्यावरण संरक्षण का यह अभियान दिनों-दिन आगे बढ़ता जा रहा है। मैती आंदोलन के साथ लोगों को जोड़ने का जो काम कल्याण सिंह रावत ने किया अब वह परम्परा का रूप ले चुका है। और दुनिया के कई देशों में इस परंपरा को अपनाया जा रहा है।
नरेंद्र सिंह नेगी
लोकगायक नरेंद्र सिंह नेगी जी के बारे में कहावत की यदि उत्तराखंड को जानना है तो नेगी जी के गीत सुने जाए। नरेंद्र सिंह नेगी उत्तराखंड के सबसेप्रिय लोकगायक है..नेगी जी ने पर्यावण को बचाने के लिए कई गीत लिखे है, जिसमे डाल्युं न कटा भूलो सबसे लोकप्रिय गीत है… इसके अल्वा गंदलु केर दिल तेरु छालू पानी गंगा जी, उत्तराखंड की धरती उन डामु दामयाली जी.. प्रमुख है