उत्तराखण्ड की परंपरागत दीवाली इंगास- बग्वाल और भैलो

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धंर्मेन्द्र पंत (घसेरी)

दीवाली तो हम हर साल मनाते हैं। दिये जलाना, कुछ पटाखे छोड़ना और उपहारों का आदान प्रदान। विशुद्ध औपचारिकताओं से भरी दीपावली। अगर मेरे साथ दीवाली खेलने के लिये चलना है तो फिलहाल आपको यह दीपावली भूलनी होगी। मेरे पहाड़ की दीवाली जिसे हम बग्वाल कहते हैं। इसके बाद हम भैला भी खेलेंगे और भ्वींत भी।
दीवाली नहीं इगास-बग्वाल

पहाड़ों, विशेषकर गढ़वाल में दीवाली को बग्वाल कहा जाता था। अब भी पुराने लोगों के मुंह से आपको बग्वाल सुनने को मिल जाएगा। इसके 11 दिन बाद इगास आती है। पंडित भास्करानंद पंत के अनुसार, ”गढ़वाल में दीपावली को ही बग्वाल बोलते हैं। इसके 11वें दिन बाद हरिबोधिनी एकादशी आती है जिसको हम इगास कहते हैं। अमावस्या के दिन लक्ष्मी जागृत होती है और इसलिए बग्वाल को लक्ष्मी जी की पूजा की जाती है। हरिबोधनी एकादशी के दिन भगवान विष्णु शयनावस्था से जागृत होते हैं और उस दिन विष्णु पूजा करने का प्रावधान है। ”

उत्तराखंड में असल में कार्तिक त्रयोेदशी से ही दीप पर्व शुरू हो जाता है और यह कार्तिक एकादशी यानि हरिबोधनी एकादशी तक चलता है। इसे ही इगास . बग्वाल कहा जाता है। जिस दिन बग्वाल या इगास होती थी उस दिन सुबह से ही रौनक बन जाती थी। इन दोनों दिन सुबह लेकर दोपहर तक पालतू पशुओं की पूजा की जाती है। पशुओं के लिये भात, झंगोरा, बाड़ी (मंडुए यानि कोदा के आटे से बना हुआ) और जौ का पींडू (अन्न से तैयार किया गया पशुओं के लिये आहार) तैयार किया जाता है। भात, झंगोरा, बाड़ी और जौ के बड़े लड्डू तैयार करके उन्हें परात में रखकर कई तरह के फूलों से सजाया जाता है। पशुओं की पूजा के लिये सबसे पहले उनके पांव धोए जाते हैं और फिर धूप और दिया जलाकर उनकी पूजा की जाती है। उन पर हल्दी का टीका लगाने के साथ ही सींगो को तेल से चमकदार बनाया जाता है। इसके बाद पशुओं को परात में सजाया गया अन्न खिलाया जाता है। सिर्फ अपने ही पशुओं को नहीं बल्कि आस पड़ोस के पशुओं को भी यह अन्न, जिसे गौ ग्रास कहते हैं, दिया जाता है। बग्वाल तक खरीफ की फसल तैयार होकर घरों तक भी पहुंच जाती है। फसल को तैयार करने में पशुओं की भूमिका भी अहम होती है और इसलिए अन्न का पहला निवाला उन्हें देने का प्रचलन शुरू हुआ।

बग्वाल और इगास दोनों दिन घरों में पूड़ी, स्वाली, पकोड़ी, भूड़ा आदि पकवान बनाये जाते हैं। शाम को इस तरह के पकवान अधिक मात्रा में बनाये जाते हैं। फिर उन सभी परिवारों में ये पकवान पहुंचाये जाते हैं जिनकी बग्वाल नहीं होती है। (जिनके घर में किसी की मृत्यु हो जाती है तो वह साल भर तक कोई त्यौहार नहीं मनाता है)। इसके बाद रात को खा पीकर मनाया जाता था ​बग्वाल का असली जश्न जिसे भैलो कहा जाता है।

भैला भाईयो भैला

गांवों में पहले भैला (एक तरह की मशाल) खेलने का चलन था। मेरा जन्म 1970 में हुआ लेकिन जब होश संभाला तो तब मैंने गांवों में यह प्रथा बहुत ज्यादा नहीं देखी। चाचाजी श्री हरिराम पंत ने हालांकि भैला बहुत खेला है। उनसे जब इस बारे में पूछा तो वह पुरानी यादों में खो गये। उन्होंने बताया, ” हम सभी चौंर (यानि सार्वजनिक स्थल) में इकट्ठा होते थे। भैला पहले से ही तैयार कर लेते थे। ढोल दमाऊ के साथ नाचते और भैला खेलते थे। भैला सूखे बांस पर क्याड़ा (भीमल के पेड़ की ट​हनियों को कुछ दिनों तक पानी में डालकर तैयार की गयी जलावन की लकड़ी) और छिल्ला (चीड़ की लकड़ी) से तैयार करते थे। बाद में उस पर आग लगाकर पूरे गांव का चक्कर लगाते हुए गांव के ऊपर पहाड़ी पर स्थित नंदादेवी मंदिर (गांव की कुलदेवी) तक जाते। ऐसा गांव की समृद्धि के लिये किया जाता था। इस बीच एक दूसरे के साथ खूब हंसी मजाक चलता रहता था।”

भैला का यह उत्सव जैसा माहौल यहीं पर नहीं थमता है। असल में इसकी तैयारी तो कुछ दिन पहले से ही शुरू कर दी जाती थी। यह तैयारी होती थी मोटी रस्सियां बनाने की जो एक खास तरह की घास (बबलु) से तैयार की जाती थी। इसके बाद रस्साकसी होती थी। चाचाजी ने हंसते हुए यादें ताजा की, ”हम मैल्या ख्वाल और तैल्या ख्वाल (गांव के ऊपर वाला हिस्सा और नीचे वाला हिस्सा) के निवासी अलग अलग हो जाते और फिर रस्साकसी होती। ढोल दमाऊ बजता रहता है और सबके सब मस्ती करते हुए अपनी ताकत आजमाते। जो जीत गया रस्सी उसकी। इसके साथ नाच गाना भी चलता रहता। बाद में कुछ और रस्सियों के बीच में चीड़ के छिल्ले लगाकर आग लगा दी जाती और फिर उसके साथ तरह तरह के करतब दिखाते। विशेषकर उस आग को लांघने का करतब जिसे भ्वींत कहते थे। अब कौन खेलता है भैलो और भ्वींत। ”

सच में अब तो पटाखों के शोर और चीन में बनी लड़ियों की रोशनी में खो जाती है दीवाली, लेकिन मुझे उम्मीद है कि आपको मेरे साथ बग्वाल में भैला खेलने में आनंद आया होगा।

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