शारीरिक विकलांगता और गरीबी भी जिसके सपनो के आगे टिक ना पाये। सफलता और संघर्ष का नाम उम्मुल खैर

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आज भी हमारे समाज मे कई जगह बेटियों का पढ़ना लिखना मना है, जरा सोचिए जब ऐसे माहौल में रहने वाली बेटियां कुछ बनने का सपना लेकर आगे बढ़ना चाहती है और उन्हें परिवार की तरफ से इस तरह का सपोर्ट नही मिलता तो उन पर क्या बीतती होगी। और यदि लड़की विकलांग है फिर तो उसके लिए अपनी जिंदगी जीते जी नरक के समान हो जाती है।
लेकिन हमारे देश मे आज एक ऐसी ही बेटी ने बुरी परिस्तिथियों में भी पढ़ लिखकर सिर्फ परिवार का ही नही देश का भी नाम रोशन किया है। और वो बेटी है उम्मुल खैर। उम्मुल का जन्म राजस्थान के पाली मारवाड़ में हुआ। उम्मुल अजैले बोन डिसऑर्डर बीमारी के साथ पैदा हुई थी, एक ऐसा बॉन डिसऑर्डर जो बच्‍चे की हड्डियां कमज़ोर कर देता है। हड्डियां कमज़ोर हो जाने की वजह से जब बच्चा गिर जाता है तो फ्रैक्चर होने की ज्यादा संभावना रहती है. इस वजह से 28 साल की उम्र में उम्मुल को 15 से भी ज्यादा बार फ्रैक्चर का सामना करना पड़ा है।

उम्मुल पहले दिल्ली के निजामुद्दीन में रहती थी,वही झुग्‍गी में उम्मुल का बचपन बीता। उम्मुल के पापा सड़क के फुटपाथ पर मूंगफली बेचा करते थे। 2001 में झुग्गियां टूट गईं, फिर उम्मुल और उनका परिवार त्रिलोकपुरी इलाके में चले गए। त्रिलोकपुरी में किराये के मकान में रहे। उस वक्त उम्मुल सातवीं कक्षा की छात्रा थी। उम्मुल का परिवार आर्थिक रूप से कमजोर था। जिस कारण उम्मुल के परिवार के लोग नहीं चाहते थे कि उम्मुल आगे पढ़ाई करे लेकिन उम्मुल अपनी पढ़ाई जारी रखना चाहती थी। इस वजह से अपना ख़र्चा उठाने के लिए उम्मुल ने आसपास के बच्चों को ट्यूशन पढ़ाना शुरू कर दिया। एक बच्चे को पढ़ाने पर भी उसे 50 से 60 रुपया मिलता था।
उम्मुल की माँ के मरने के बाद जब सौतेली माँ ने सही व्यवहार नही रक्खा तो उम्मुल ने बाहर रहकर पढ़ाई की तब 12वीं क्लास में उम्मुल के 90 प्रतिशत मार्क्‍स थे। तब भी उम्मुल अकेले रहती थी, ट्यूशन पढ़ाती थी। 12वीं के बाद उम्मुल ने दिल्ली यूनिवर्सिटी के गार्गी कॉलेज में साइकोलॉजी से ग्रेजुएशन किया वहां उम्मुल की संघर्ष की कहानी धीरे धीरे सबको पता चली।
 
उम्मुल जब गार्गी कॉलेज में थी तब अलग-अलग देशों में दिव्यांग लोगों के कार्यक्रम में भारत का प्रतिनिधित्व किया। 2011 में उम्मुल सबसे पहले ऐसे कार्यक्रम के तहत दक्षिण कोरिया गई. दिल्ली यूनिवर्सिटी में जब उम्मुल पढ़ाई करती थी तब भी बहुत सारे बच्चों को ट्यूशन पढ़ाती थी। उम्मुल तीन बजे से लेकर रात को ग्यारह बजे तक ट्यूशन पढ़ाती थी. अगर उम्मुल ट्यूशन नहीं पढ़ाती तो घर का किराया और खाने-पीने का ख़र्चा नहीं निकाल पाती। ग्रेजुएशन के बाद उम्मुल को साइकोलॉजी विषय छोड़ना पड़ा। दरअसल साइकॉलॉजी में इंटर्नशिप होती थी। उम्मुल अगर इंटरशिप करती तो ट्यूशन नहीं पढ़ा पाती। फिर उम्मुल का जेएनयू में मास्टर ऑफ़ आर्ट्स के लिए एडमिशन हुआ। उम्मुल ने साइकोलॉजी की जगह इंटरनेशनल रिलेशंस चुना।
 
जेएनयू में उम्मुल को हॉस्टल मिल गया। जेएनयू के हॉस्टल का कम चार्ज था अब उम्मुल को ज्यादा ट्यूशन पढ़ाने की जरुरत नहीं पड़ी। अपने एमए पूरा करने के बाद उम्मुल जेएनयू में एमफिल में दाख़िला ली। 2014 में उम्मुल का जापान के इंटरनेशनल लीडरशिप ट्रेनिंग प्रोग्राम के लिए चयन हुआ. 18 साल के इतिहास में सिर्फ तीन भारतीय इस प्रोग्राम के लिए सेलेक्ट हो पाए थे और उम्मुल ऐसी चौथी भारतीय थीं जो इस प्रोग्राम के लिए सेलेक्ट हुई थीं। फिर उम्मुल एक साल छुट्टी लेकर इस प्रोग्राम के लिए जापान चली गई। इस प्रोग्राम के जरिये उम्मुल दिव्‍यांग लोगों को यह सिखाती थी कि कैसे एक इज्‍जत की ज़िंदगी जी जाए। एक साल ट्रेनिंग प्रोग्राम के बाद उम्मुल भारत वापस आई और अपनी एमफिल की पढ़ाई पूरी की।

एमफिल पूरा करने के बाद उम्मुल ने जेएनयू में पीएचडी में दाख़िला लिया। जनवरी 2016 में उम्मुल ने आईएएस के लिए तैयारी शुरू की और अपने पहले प्रयास में सिविल सर्विस की परीक्षा पास कर. उम्मुल ने 420वीं रैंक हासिल की।
 और उम्मुल चाहती है की वो सपने परिवार को हर खुशी दे।

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