मस्त माहौल में हुड़के की थाप पर धान की रोपाई भी लुप्त

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अल्मोड़ा- एक समय हुआ करता था जब कुमाऊ के कई स्थानों पर हुड़के की थाप पर मनोरंजन के साथ सामूहिक खेती होती थी और इससे थकान भी महसूस नही होती थी, पूरा दिन कब कट जाता था पता ही नही चलता था। लेकिन जानवरो द्वारा फसल को नुकसान पहुंचाने,  कृषि भूमि टुकड़ो में बटने, समय पर बारिश नहीं होने और नहरों के क्षतिग्रस्त होने से रोपाई के लिए खेतों में पर्याप्त पानी नहीं पहुंचता। इसके साथ ही अब लोगों में सामूहिक कार्य करने की भावना भी नही रही। यही कारण है कि अब धान की रोपाई की परंपरा खत्म होने के कगार पर है।

सोमश्वर घाटी के सिरखेत, नाखेत, तालखेत, पल्यूड़ख़ेत, आदि इलाकों में मुख्य फसल धान ही है। वर्षों से यहां हुड़किया बौल के साथ धान की रोपाई की जाती रही है। एक दशक पूर्व तक महिलाएं हुड़किया बौल के साथ धान की पौध की रोपाई करती थीं। नौकरीपेशा लोग भी धान की रोपाई से समय गांव आते थे। लोग सुबह से शाम तक धान की रोपाई में व्यस्त रहते थे। पिछले सालों में सुअरों और बंदरों द्वारा फसल को नुकसान पहुंचाने,  कृषि जोत छोटी होने, समय पर बारिश नहीं होने और नहरों के क्षतिग्रस्त होने से रोपाई के लिए खेतों में पर्याप्त पानी नहीं पहुंचता। लोगों में सामूहिकता की वो भावना भी नहीं रही। यही वजह है कि हड़िकिया बौल की परंपरा समाप्त होने वाली है।

अब तो लोगों का अधिकांश समय रोपाई के लिए पानी की व्यवस्था करने में बीत रहा है। कई लोग कोसी और साईं नदी से जेनरेटर के माध्यम से पंपिंग कर खेतों में पानी पहुंचा रहे हैं। लोक संस्कृति से जुड़े लोगों का कहना है कि हुड़किया बौल की परंपरा यहां की खेती और संस्कृति से जुड़ी है। इस विधा को संरक्षित करने की जरूरत है।

हुड़किया बौल के अंतर्गत लोक कलाकार रोपाई करने वालों के आगे हुड़के की थाप पर दैण होया भूमि का भूमियाला देवा जैसे लोक गीतों से रोपाई की शुरुआत कराते थे। राजुला मालूशाही, हरुहीत आदि की लोक गाथाएं गाई जाती हैं। कलाकारों के साथ गीतों को दोहराकर महिलाएं धान की पौध रोपती जाती थीं। इससे पानी से भरे खेतों में काम की थकान बिल्कुल भी महसूस नहीं होती थी। मनोरंजन के साथ काम का इससे बेहतर तरीका और कोई नहीं था।

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