आज  कुछ युवा पीढ़ी के लोग गैरसैण राजधानी के मुद्दे पर बहस कर रहे थे, की गैरसैण में राजधानी बनाना फालतू का फिजूल खर्ची का काम है पैसा वेस्ट है… उन युवा मित्रो से एक बात पूछना चाहूंगा की क्या वो ये जानते भी है की गैरसैण राजधानी बनाने की मांग क्यों की जा रही है?

जो मित्र गैरसैण राजधानी ना बनाने की वकालत कर रहे है, इससे एक बात साफ़ जाहिर हो जाती है की वो उत्तराखंड आंदोलन में न तो सक्रीय थे नाही उन्हें उत्तराखंड आंदोलन का इतिहास मालुम है अगर उन्हें नहीं पता तो उनकी जानकारी के लिए बता दूँ की पूरे उत्तराखंड से जिन लोगों ने अपनी जान दी है , गैरसैण उन सभी शहीदों का सपना था … हम अपने घर में भी मरने वालो की हर आखरी इच्छा पूरी करते है तो अपनी मात्र भूमि के लिए जिन्होंने बलिदान दे दिया क्या हम उनके सपने पूरे नहीं करेंगे?
दूसरी चीज गैरसैण राजधानी ना बने ये सोच उन लोगों की हो सकती है जिनके लिए उत्तराखंड का मतलब हल्द्वानी, काठगोदाम, देहरादून हरिद्वार, दुगड्डा और सितारगंज जैसी जगह है…. ऐसे आराम पसंद लोग घबराते है की कौन इतना दूर पहाड़ में जाएगा अगर कोई काम पड़ गया तो… क्योंकि एक असली उत्तराखंडी का दर्द वो इंसान ही समझ सकता है जिसके माँ बाप आज भी उत्तराखंड के उस गाँव में रहते होंगे जहाँ आज भी बसे नहीं जाती पांच घंटे कड़ी चढ़ाई के बाद जब एक आदमी अपने घर पहुचता होगा वो ही पहाड़ के असली दुःख दर्द को समझ सकता है….

इस दुःख को वो ही समझ सकता है जो बेचारा पांच घंटे पैदल चलकर सुबह की बस पकड़ के अपने काम के लिए देहरादून, हरिद्वार, कोटद्वार हल्द्वानी जैसे मैदानी इलाको में दिन भर अपने काम के लिए धक्के खता है फिर शाम होने पर आखिरी बस ना मिलने के कारण इन मैदानी इलाको में चल रही होटल मालिको और स्टेशन के पास बानी दुकान वालो के शोषण का शिकार होता है…. जहा दस रुिपये की पानी की बोतल में नकली पानी भर के तीस रुपये वसूले जाते है और अगर कोई आवाज उठाए तो सभी दूकानदार मिलकर उसकी आवाज को दवा देते है..

अगर पहाड़ का विकास करना है तो कोटद्वार, हरिद्वार, हल्द्वानी, देहरादून जैसे मैदानी इलाको को छोड़ कर पहाड़ के बारे में सोचना पड़ेगा… उत्तराखंड राज्य किसी भाजपा या कांग्रेस की देन नहीं बल्कि कई घरो की जवान मौत और बलिदानो की देन है उन सभी ने अपना बलिदान उत्तराखंड राज्य और उसकी राजधानी गैरसैण के लिए दिया था.. इसीलिए पहाड़ की राजधानी पहाड़ में होगी..

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